पत्रकारिता की दुनिया में एक अनकही प्राथमिकता होती है—किसके दर्द को दिखाया जाए और किसे नज़रअंदाज़ किया जाए। दुख की बात है कि बेघर जानवर इस सूची में सबसे नीचे आते हैं।
बार-बार मीडिया ने बेजुबानों को निराश किया है। जब किसी आवारा जानवर को पीटा जाता है, ज़हर दिया जाता है, या ग़ायब कर दिया जाता है—तो न्यूज़ चैनल शांत रहते हैं। कोई सुर्ख़ी नहीं, कोई डिबेट नहीं, कोई रिपोर्टर सवाल पूछने नहीं आता। क्यों? क्योंकि ऐसी ख़बरों से टीआरपी नहीं मिलती। बेघर जानवर टीवी नहीं देखते। अख़बार नहीं पढ़ते। और एक ऐसे सिस्टम में, जो सिर्फ़ व्यूअरशिप से चलता है, उनकी तकलीफों की कोई गिनती नहीं।
लेकिन जैसे ही कोई जानवर डर, दर्द या खुद की रक्षा में पलटवार करता है—मीडिया की नज़र तुरंत उस पर पड़ती है।
एक काटना, एक पंजा मारना, या कोई दुर्लभ हमला—बस यही काफी है मीडिया के लिए एक नई सनसनी बनाने के लिए। हेडलाइंस में लिखा जाता है “आवारा कुत्ते का हमला!”, “खतरनाक जानवर की दहशत!”, जिससे जनता में डर और गुस्सा फैलता है। लेकिन कोई ये नहीं पूछता कि आख़िर जानवर ने ऐसा क्यों किया? क्या वो भूखा था? डराया गया? किसी ने उसे पत्थर मारा?
और जब रिपोर्टिंग हो जाती है, तब शुरू होता है असली अत्याचार। भीड़ हमला करती है। ज़हर दिया जाता है। जानवरों को कहीं दूर वीरान इलाकों में फेंक दिया जाता है, जहाँ खाना-पानी तक नहीं होता। और मीडिया? वो तो अब अगली टीआरपी वाली ख़बर पर चला गया होता है।
टूटी हुई कहानी
जानवरों पर होने वाली क्रूरता को न दिखाना सिर्फ़ लापरवाही नहीं है—बल्कि ये मूक सहमति है।
- कहां हैं वो खबरें जहाँ कुत्तों को ज़िंदा जला दिया जाता है?
- या दूध न देने पर गायों को सड़क पर छोड़ दिया जाता है?
- या घायल पशुओं को तड़पता छोड़ दिया जाता है?
ऐसी ख़बरें आपको वायरल नहीं मिलेंगी। क्योंकि टीआरपी तय करती है अब किसके लिए संवेदना रखनी है। संपादक अपने पत्रकारों को सिखाते हैं—ड्रामा लाओ, दर्द नहीं।
दोहरा मापदंड
इंसान रोज़ जानवरों को दर्द देता है—पालतू जानवरों को छोड़ देना, पत्थर मारना, जहर देना, सड़कों से उठवा देना, जंगलों को उजाड़ना, मनोरंजन के लिए उनका इस्तेमाल करना। लेकिन जब इंसान यह सब करता है, तो मीडिया चुप रहता है।
पर जैसे ही कोई जानवर कुछ कर देता है, वह तुरंत “खतरा” बन जाता है। यही है मीडिया की सबसे भयानक पक्षपात।
यह मानसिकता न केवल अन्यायपूर्ण है, बल्कि यह समाज को भी जानवरों के खिलाफ़ भड़काती है। इसे देखकर लोग मानते हैं कि जानवर केवल मुसीबत हैं, भावनाएं या ज़रूरतें रखने वाले जीव नहीं।

कहां है वो पत्रकारिता जो करुणा सिखाती है?
अब समय है मीडिया को आईना दिखाने का।
पत्रकारिता सिर्फ़ शक्तिशाली लोगों की आवाज़ नहीं होनी चाहिए। उसका काम है—सच बोलना, निर्दोषों को बचाना, और बेज़ुबानों की आवाज़ बनना। आज जानवरों को उसी पत्रकारिता की सबसे ज़्यादा ज़रूरत है।
हम मीडिया हाउस से अपील करते हैं:
- जब भी जानवरों पर क्रूरता हो, रिपोर्ट करें।
- लोगों को पशु व्यवहार और उनकी ज़रूरतों के बारे में जागरूक करें।
- जो लोग जानवरों की मदद करते हैं, उन्हें दिखाएं।
- क्रूरता करने वालों को बेनकाब करें।
- मीडिया को डर फैलाने की मशीन नहीं, बल्कि दया का माध्यम बनाएं।
क्योंकि जानवरों की कहानी तब भी होती है जब वो चुपचाप पीड़ा सहते हैं—ना कि सिर्फ़ तब, जब वे पलटवार करते हैं।
गुस्से और करुणा के साथ लिखा गया,
उनके लिए जो बोल नहीं सकते,
उनके लिए जो हमारे बीच हैं लेकिन अकेले हैं।